कहीं दर्द फिर उठा है , कहीं होश फिर उड़ा है ;
हे धर्म के मसीहा, कैसी ये हवा है ?
वे नम होती आंखे , वे मृत होती जिह्वा ;
हे धर्म के मसीहा , कैसी ये व्यथा है ;
न तू समझ रहा है , न वे समझ रहे हैं ;
धर्म-क्षेत्र के खातिर , वे कट - मर रहे हैं ;
कहीं आग फिर जली है, कही घर उजड़ रहे हैं ;
वे जानते नहीं कि धर्म नहीं ,
इंसानियत जल रही है .........
हे धर्म के मसीहा , कैसी ये समझ है ............
Thursday, February 17, 2011
Wednesday, February 16, 2011
कही लुप्त न हो जाए अविरल-निर्मल गंगा...........
गंगा को बचाने के प्रयशो की समीच्छा कर रहे हैं लेखक....
गंगा एक ऐसा शब्द जिसके स्मरण मात्र से ही पवित्रता का बोध होता है। हिमालय की गोद से होती हुई उत्तर के मैदानो को समृद्ध और प्रेम देते हुए गंगा सागर मे समाहित होकर भी अपना प्रेम वर्षा की बुंदों के रूप मे देती रहती है। वो मां है जो सभी कष्ट उठाते हुए भी अपने बच्चो का भरण-पोषण करती है। जैसे माँ अपने आंचल मे मल त्याग देने के बाद भी अपने बच्चे को अपने मे समेटे हुए उसपर प्रेम की वर्षा करती रही है दूर नहीं करती उसी तरह गंगा माँ भी हम सबको पाल रही है। परंतु हम क्या अपने दायित्वों का निर्वहन पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं। यह एक मौलिक प्रश्न है जो हम सबके जहम मे उठनी चाहिए। मेरे गंगा यात्रा के दोरान जब मैं ऋषिकेश के एक चिंतक स्वामी चिदानन्द मुनि के परमार्थ निकेतन मे भारत के कुछ महान वेज्ञानिकों के साथ रुका तो एहसास हुआ की शायद मेरी माँ अब सुरक्षित हाथो मे है। मगर भारतीय वैज्ञानिक प्रयोगशालाओ की शोध की स्थिति देख मन मे अब भी एक शंसय था। हम अविरल-निर्मल गंगा संगोष्ठी मे बैठे थे कि अचानक मेरी नजर एक खादी मे लिपटे हुए एक छोटे क़द के व्यक्ति कि तरफ गयी वो और कोई नहीं वर्तमान समय का भागीरथ प्रोफ़ेसोर जी. डी. अग्रवाल थे जो माँ के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दी। संगोष्ठी के दौरान कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा जो तथ्य प्रस्तुत किए गए उससे ये लगा कि गंगा को साफ करने कि मुहिम जो भारतीय वैज्ञानिकों ने ली है वह पूरा हो सकता है। परंतु कुछ एक प्रोजेक्ट जो विगत दो वर्षो से पास है का पायलट प्रोजेक्ट अभी भी नहीं शुरू हो पाया। पुनः मन मे शंसय पैदा कर रही थी। वही वनारस प्रवास के दौरान दशस्वामेध घाट पर नीचे दो बड़े नालो से माँ के आंचल मैं बह रहा पानी मन को कष्ट पहुंचा रहा था, जबकि वही वनारस हिन्दू विश्वविद्यालय मे वैज्ञानिकों और पूज्य संतों का जमावड़ा माँ गंगा को कैसे अविरल-निर्मल बनाया जाय इस पर विचार करने मे लगा था। प्रश्न यह नहीं कि धन कहा से लाये प्रश्न यह है कि मन मे भाव कहा से लाये। गंगा को साफ करने के लिए संगोष्टीओ कि नहीं परंतु मन को बदलने की आवश्यकता है। त्याग की आवश्यकता है। जीवन उस माँ को समर्पित करने की आवश्यकता है जो अपना पूरा आप पर कुर्बान कर देती है। इस पर एक कविता याद आती है –
“हाय अबला तेरी यही कहानी आंचल मे है दूध और आंखो मे पानी।“
कभी पाप नाशनी गंगा आज खुद इतनी प्रदूषित हो गयी है कि उसको साफ करने के लिए करोड़ो रुपए लगा कर साफ करना पद रहा है। काही धर्म के नाम पर तो काही मोक्ष के नाम पर। धार्मिक अनुस्ठानो मे प्रयोग होने वाले सामग्री से जल प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि गंगा मे पाये जाने वाली एक दुर्लभ प्रकार कि डाल्फिन मछली खत्म सी हो गयी। गंगा के जैवविविधिता पर भरी संकट इस प्रदूषण कि वजह से उत्पन्न हुआ है। जहाँ कानपुर मे सरकार चमड़े के उढ़्योगों पर रोक लगाने की बात हो रही है वही चमड़े व्यापारी को पुरस्कृत करना कहा तक जायज है यह चिंतनीय विषय है। सरकार की दोहरी नीतिया हमेशा से विश्वनीयता पर प्रशन पैदा करती है। ऋषिकेश मे मन मे आए एक वाक्य को हमे याद रखना होगा- गंगा बचाओ, सभ्यता बचाओ।
------सत्येंद्र त्रिपाठी
गंगा एक ऐसा शब्द जिसके स्मरण मात्र से ही पवित्रता का बोध होता है। हिमालय की गोद से होती हुई उत्तर के मैदानो को समृद्ध और प्रेम देते हुए गंगा सागर मे समाहित होकर भी अपना प्रेम वर्षा की बुंदों के रूप मे देती रहती है। वो मां है जो सभी कष्ट उठाते हुए भी अपने बच्चो का भरण-पोषण करती है। जैसे माँ अपने आंचल मे मल त्याग देने के बाद भी अपने बच्चे को अपने मे समेटे हुए उसपर प्रेम की वर्षा करती रही है दूर नहीं करती उसी तरह गंगा माँ भी हम सबको पाल रही है। परंतु हम क्या अपने दायित्वों का निर्वहन पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं। यह एक मौलिक प्रश्न है जो हम सबके जहम मे उठनी चाहिए। मेरे गंगा यात्रा के दोरान जब मैं ऋषिकेश के एक चिंतक स्वामी चिदानन्द मुनि के परमार्थ निकेतन मे भारत के कुछ महान वेज्ञानिकों के साथ रुका तो एहसास हुआ की शायद मेरी माँ अब सुरक्षित हाथो मे है। मगर भारतीय वैज्ञानिक प्रयोगशालाओ की शोध की स्थिति देख मन मे अब भी एक शंसय था। हम अविरल-निर्मल गंगा संगोष्ठी मे बैठे थे कि अचानक मेरी नजर एक खादी मे लिपटे हुए एक छोटे क़द के व्यक्ति कि तरफ गयी वो और कोई नहीं वर्तमान समय का भागीरथ प्रोफ़ेसोर जी. डी. अग्रवाल थे जो माँ के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दी। संगोष्ठी के दौरान कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा जो तथ्य प्रस्तुत किए गए उससे ये लगा कि गंगा को साफ करने कि मुहिम जो भारतीय वैज्ञानिकों ने ली है वह पूरा हो सकता है। परंतु कुछ एक प्रोजेक्ट जो विगत दो वर्षो से पास है का पायलट प्रोजेक्ट अभी भी नहीं शुरू हो पाया। पुनः मन मे शंसय पैदा कर रही थी। वही वनारस प्रवास के दौरान दशस्वामेध घाट पर नीचे दो बड़े नालो से माँ के आंचल मैं बह रहा पानी मन को कष्ट पहुंचा रहा था, जबकि वही वनारस हिन्दू विश्वविद्यालय मे वैज्ञानिकों और पूज्य संतों का जमावड़ा माँ गंगा को कैसे अविरल-निर्मल बनाया जाय इस पर विचार करने मे लगा था। प्रश्न यह नहीं कि धन कहा से लाये प्रश्न यह है कि मन मे भाव कहा से लाये। गंगा को साफ करने के लिए संगोष्टीओ कि नहीं परंतु मन को बदलने की आवश्यकता है। त्याग की आवश्यकता है। जीवन उस माँ को समर्पित करने की आवश्यकता है जो अपना पूरा आप पर कुर्बान कर देती है। इस पर एक कविता याद आती है –
“हाय अबला तेरी यही कहानी आंचल मे है दूध और आंखो मे पानी।“
कभी पाप नाशनी गंगा आज खुद इतनी प्रदूषित हो गयी है कि उसको साफ करने के लिए करोड़ो रुपए लगा कर साफ करना पद रहा है। काही धर्म के नाम पर तो काही मोक्ष के नाम पर। धार्मिक अनुस्ठानो मे प्रयोग होने वाले सामग्री से जल प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि गंगा मे पाये जाने वाली एक दुर्लभ प्रकार कि डाल्फिन मछली खत्म सी हो गयी। गंगा के जैवविविधिता पर भरी संकट इस प्रदूषण कि वजह से उत्पन्न हुआ है। जहाँ कानपुर मे सरकार चमड़े के उढ़्योगों पर रोक लगाने की बात हो रही है वही चमड़े व्यापारी को पुरस्कृत करना कहा तक जायज है यह चिंतनीय विषय है। सरकार की दोहरी नीतिया हमेशा से विश्वनीयता पर प्रशन पैदा करती है। ऋषिकेश मे मन मे आए एक वाक्य को हमे याद रखना होगा- गंगा बचाओ, सभ्यता बचाओ।
------सत्येंद्र त्रिपाठी
Thursday, January 27, 2011
The GANGA is not a river for Indians but it is the symbol of love between a mother-child.It is the mother of INDIAN Civilization but how we are serious about her is shown into this attachment.I am really serious about the progress by the acting agencies about pollution free to Maa GANGA i.e., AVIRAL GANGA NIRMAL GANGA.
Once government announce this river as INDIA's river on other front they pass many hydrological project who give bad impact on its Biodiversity, Fluvial flow etc. Its really serious question which must come on into each and every INDIAN's mind.
Please if you needed any information please visit www.ganagpedia.in
Please server for GANGA.
SAVE GANGA SAVE CIVILISATION
Thursday, October 21, 2010
SAVE GANGA MOVEMENT
the rivers provide water to over 5 billion people who live near them, besides providing a home to thousands of species.These stressors endanger the biodiversity of 65 per cent of the world's river habitats and put thousands of aquatic wildlife species at risk. Also, over-development and excessive extraction as well as billions of dollars of investment by developed countries to avert water stress have damaged biodiversity of the rivers, the report published in the latest issue of journal Nature said.
In the case of Maa GANGA the civilization of north India depends on the fertile land of this river. If such pollution level grow then may be Maa Ganga become like Sarswati. To Save Ganga on the 26th oct. 2010 a meeting call at Haridwar between Scientific society, National Ganga Basin River Authority and Religious gurus.In this Bhartiy Vedic Vigyan Academy's Director Er. Satyendra Tripathi also call for meeting with these deligates. also Academy like to start a campain in whole Uttrakhand for MAA GANGA.
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